औराई, भदोही(गिरीश तिवारी)-
सड़कें देश की धड़कन होती हैं। हाईवे पर दौड़ती गाड़ियाँ देश की तरक्की की रफ्तार बताती हैं। लेकिन जब इन्हीं सड़कों पर ज़िंदगी खिलौना बन जाए और प्रशासन मूकदर्शक बन जाए, तो समझिए विकास का पहिया ज़रा डगमगाया हुआ है।राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 2 (NH-2) पर औराई के पास रविवार दोपहर को एक ऐसा दृश्य सामने आया, जिसने न केवल सड़क सुरक्षा पर सवाल खड़े कर दिए बल्कि प्रशासनिक व्यवस्था की असलियत भी उजागर कर दी। एक छोटा ट्रक, जो मूलतः माल ढोने के लिए बनाया गया है, उसमें इंसानों को ऐसे भरा गया था जैसे वे कोई बोरा या सामान हों। दर्जनों युवक ट्रक मेंफंसे-फंसे खड़े थे, कुछ तो ट्रक के पिछले हिस्से से बाहर की ओर लटक रहे थे, जिनमें से एक युवक आधा लटका हुआ था मानो मौत को दावत दे रहा हो।यह दृश्य कोई फिल्मी सीन नहीं, बल्कि हकीकत है। ट्रक का नंबर UP65G17746 साफ तौर पर तस्वीर में नजर आ रहा है, जिससे साफ है कि यह वाराणसी क्षेत्र से पंजीकृत वाहन है। लेकिन मूल सवाल यह नहीं कि ट्रक कहां का है, बल्कि यह है कि क्या कोई नियम-कानून अब सड़क पर लागू ही नहीं होते? क्या उत्तर प्रदेश की सड़कों पर अब जिंदगी यूं ही हवा में झूलती रहेगी, और प्रशासन आंख मूंदे बैठा रहेगा?तस्वीर में साफ दिख रहा है कि कई युवक कंधों पर बैग टांगे हुए हैं। वे या तो छात्र हैं जो पढ़ाई के लिए गांव से शहर जा रहे हैं, या फिर मज़दूर जो किसी फैक्ट्री की ओर निकल पड़े हैं। लेकिन जो साधन उन्हें मिला है, वो मौत की एक खुली गाड़ी है, जिसमें न सीट है, न पकड़ने के लिए कुछ, न कोई सुरक्षा।

सिर्फ एक-दूसरे के कंधों से चिपके, भरोसे पर लटकी जिंदगियां हैं।नेशनल हाईवे पर तेज रफ्तार में दौड़ती इस ट्रॉली को देख कर यह यकीन करना मुश्किल नहीं कि किसी भी मोड़, ब्रेक या हल्की-सी टक्कर में यह पूरा दल सड़क पर बिखर सकता था। लेकिन ट्रैफिक पुलिस कहां है? पेट्रोलिंग कहां है? हाईवे की मॉनिटरिंग का दावा करने वाला सिस्टम कहां है?मोटर व्हीकल एक्ट की धारा 194A के तहत इस तरह के ओवरलोड और असुरक्षित यातायात पर कड़ी कार्रवाई का प्रावधान है। जुर्माना, लाइसेंस निलंबन और वाहन सीज़ तक की व्यवस्था है। लेकिन हकीकत यह है कि नियम किताबों में हैं, और सड़कों पर लापरवाही का राज है।यह ट्रक अकेला नहीं है। यह एक सोच का प्रतीक है एक सिस्टम का आईना, जहां इंसान की कीमत एक ट्रॉली से भी कम हो गई है। जहां एक-एक सीट के लिए शहरों में निजी बसें और टैक्सियाँ बेलगाम किराया वसूलती हैं, वहीं गरीब और ग्रामीण युवक इसी तरह जान हथेली पर रखकर अपने गंतव्य तक पहुंचने को मजबूर हैं।सरकारें बदलती हैं, नारे बदलते हैं, घोषणाएं होती हैं — “सड़क सुरक्षा जीवन रक्षा”, “हर यात्रा सुरक्षित हो” लेकिन ज़मीनी हकीकत यही है कि हाईवे पर ज़िंदगी अब भी ट्रकों की पिछली बाड़ी में झूलती मिलती है।प्रशासन से सवाल यह नहीं है कि चालान क्यों नहीं कटा। सवाल यह है कि क्या इनके लिए कोई व्यवस्था है? क्या हर गरीब को बस में बैठने का हक नहीं? क्या किसी छात्र को कॉलेज जाने के लिए जान जोखिम में डालनी चाहिए?एनएच-2 पर यह तस्वीर कोई अपवाद नहीं है, यह एक चेतावनी है। अगर अब भी प्रशासन नहीं जागा, तो अगली तस्वीर में सड़क पर खून होगा और सोशल मीडिया पर संवेदना। उससे पहले कोई सख्त कार्रवाई हो, यही समय की मांग है।
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